जब खोली थीं आँखें अपनी , पाया था अपने को निश्छल गोदी में,
तब से देख रही हूँ इक चेहरा , कुछ जाना कुछ अंजाना सा ,
जिसने अमृत घूँट पिलाकर मुझमें जीवन का संचार किया ,
जीवन के हर सुख में दुःख में , जिसने हर पल मेरा साथ दिया ,
कभी डांटा कभी डपटा तो कभी जी भर कर दुलार दिया ,
नहीं समझ सकी थी तब मैं , उस डाँट में छिपी अपनत्व की भावना
महसूस नहीं कर सकी थी की मैं अंश हूँ उस अस्तित्व का
जो कभी लगती मुझे एक पहेली , तो कभी अपनी प्यारी सहेली ,
आज बानी जो अंतः प्रेरणा मेरी “मधु” से भरी वो माँ है मेरी,
जाने जिसमें है कितनी गहराई , जितनी बार समझना चाही ,
हर बार एक नयी बात है पायी , आज चाहती हूँ बस इतना ही कहना ,
“माँ ” शब्द में इतनी करुणा, ममता और अनुराग भरा।
“माँ ” शब्द में ही सारे जीवन का सार भरा
— प्रीती मिश्र तिवारी (१८/अप्रैल/१९९६)
April 18 1996